Saturday 5 July, 2008

ऐसे में कहां जायेंगे यार-हिंदी शायरी

कहीं जाति तो कहीं धर्म के झगड़े
कहीं भाषा तो कहीं क्षेत्र पर होते लफड़े
अपने हृदय में इच्छाओं और कल्पनाओं का
बोझ उठाये ढोता आदमी ने
उड़ने से पहले ही अपने पर खुद ही कतरे
शहर हो गये हैं जैसे युद्ध के मैदान
किले बन गये हैं रहने के मकान
पत्थर फिर बने लगे हैं हथियार
ऐसे में कहां जायेंगे यार
कौन करेगा किससे प्यार
फाड़ने लगे हैं लोग एक दूसरे के कपड़े
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चारों तरफ प्रेम और भक्ति का
गूंजता स्वर है
पर किसी के दृदय में नहीं
दिखता श्रद्धा का भी पलभर है
रेडियो पर बजता है संदेश
टीवी पर भी दिखते तरह-तरह के भेष
अखबारों में भी पहनाते
प्रेम और भक्ति को सुंदर गणवेश
पर फिर भी जमीन पर
उनका अस्तित्व नजर नहीं आता
आदमी ही आदमी को काटने जाता
विरोधाभासों में हैं जिंदगी
आदमी चलता कहीं
उसकी होती कहीं और डगर है
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1 comment:

Anonymous said...

aapki kavita me sahi sawal hai. bhut sundar likha hai badhai ho.