Saturday, 7 June 2008

बेपरवाह होकर चलते वही अपनी मंजिल पाते-हिंदी शायरी

अपनी इज्जत की खातिर लोग
कभी दिखाते हैं दरियादिली तो
कभी तंगदिल हो जाते
खुशफहमी में जीते हैं सभी इंसान कि
दुनियां वाले उनकी तरफ ही देखते है
दूसरों की नजरों की परवाह करते
अपनी राह से हटा लेते नजर
इसलिये चलते चलते ही भटक जाते

देखते हैं मस्तराम ‘आवारा’
अपनी नजरों से अपने को देख सकें
ऐसा कोई आईना बना नहीं
दूसरों की नजर का ख्याल कर
क्यों अपने अंदाज बदल जाते हो
अपनी राह-दर-राह से भटके जाते हो
यह गलतफहमी है कि
जैसा हम अपने को देखते हैं
वैसे ही हमें देखता सारा जमाना
भला कहीं हम किसी को उसकी नजरों देख पाते
अपनी आंखों पर चढ़ा है जैसी अक्ल का
वैसा ही दृश्य देख कर अपना ख्याल बनाते
यहां सभी खोय हैं अपने में
कौन किसको देखता है
दूसरों के ख्याल की परवाह कर
सभी तबाही की राह चले जाते
जो हैं बेपरवाह वही अपनी मंजिल तक पहुंच पाते